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टेसू फूले चै त में रितु के जागे भाग

कुदरत के हर स्पंदन में जब यौवन जागे, उसके सौंदर्य कलश से मादकता छलके, हर सू रंग ही रंग हों तो समझो वसंत आया। और इस वसंत को उत्सव के रूप में मनाने का नाम है होली। यह सही है कि कालांतर में इसके साथ कुछ पौराणिक कथाएं भी जुड़ गईं, लेकिन प्रकृति के साथ एकाकार होने का नाम ही होली है। सदियों पूर्व रासायनिक रंग तो थे नहीं, टेसू के फूलों से ही रंग बनाये जाते थे। यह टेसू वही है ढाक का पेड़। आइये इस रंगीले पेड़ की रंगारंग प्रकृति के बारे में जानें...
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आलेख व छायाचित्र: राजकिशन नैन
पक्षियों में जिस प्रकार कोयल वसंत की सबसे प्यारी सखी है, उसी तरह वृक्षों में ढाक का पेड़ वसंत को सर्वाधिक प्रिय है। वसंत रितु में फूलों से लदने वाले दरख्तों में ढाक सबसे सोहन एवं सुखद है। इतना सुंदर वृक्ष संसार में शायद ही कोई दूसरा हो। ढाक शुद्ध हिन्दी का शब्द है और हिन्दी पट्टी के अंचलों में यह इसी नाम से प्रचलित है। इसके पलाश और किंशुक नाम भी हिन्दी और संस्कृत के हैं। किंशुक नाम ढाक को इसके तोते की मुड़ी हुई लाल चोंच जैसे रक्तिम पुष्पों के कारण मिला है, जो लोक में ‘टेसू’ व ‘केसू’ के नाम से ख्यात हैं। टेसू अकेला ऐसा फूल है, जिसे पेड़ से अलग नाम मिला है। अंग्रेजी में ढाक को इसके फूलों के चटक कसूमल रंग के अनुरूप ‘फ्लेम ऑफ द फॉरेस्ट’ यानी ‘वन ज्वाला’ नाम दिया गया है। ढाक का वैज्ञानिक नाम ‘ब्यूटिया मोनोस्पर्मा’ है। ढाक तीन रूपों यानी वृक्ष रूप, क्षुप रूप और लता रूप में मिलता है। लता रूप ढाक को हम ‘बेलड़ा ढाक’ कहते हैं। ढाक की बहन का नाम पलाश लता है। यह दो तरह की है। एक पर कसूमल रंग के फूल लगते हैं तथा दूसरी पर सफेद रंग के फूल आते हैं। एक समय पीले रंग के फूलों वाले ढाक भी बहुतायत में थे। ढाक की फलियों को ‘पलाश पापड़ी’ कहा जाता है। पलाश का गोंद ‘कमरकस’ कहलाता है।
ढाक के तीन पात की कहावत
वरुण और बेल वृक्ष की तरह पलास तीन पतिया होता है इसीलिए ‘वही ढाक के तीन पात’ कहावत इसको बपौती में मिली है। ढाक के तीन पत्ते ब्रह्मा, विष्णु व शिव के प्रतीक हैं। इसी कारण हिंदू धर्म में ढाक को ‘पारस पीपल’ की तरह अतीत पवित्र माना गया है।
हवन यज्ञ में पलाश
हवन में यज्ञीय लकड़ी के तौर पर वैदिक काल से पलाश की टहनी का इस्तेमाल होता है। जनेऊ संस्कार के समय हाथ में पलाश का डंडा रखना लाजिमी है। साधु-संत और ब्रह्माचारी युग-युग से पलास का दंड धारण करते आए हैं। राजा-महाराजा अधिकार और सज़ा के सूचक के तौर पर अपने पास पलास का दंड रखते थे।
‘ढाक पर चढ़ाना’, ‘ऊंट ने छोड़ा आक, बकरी ने छोड़ा ढाक’, ‘ढाक का ढाक्का, बाकी सांक्का’ और ‘आक का कीड़ा आक में राज्जी, ढाक का कीड़ा, ढाक में राज्जी’ जैसे मुहावरों एवं लोकोक्तियों से ढाक की महिमा प्रमाणित होती है। ढाक के औषधीय गुणों को आयुर्वेदाचारियों ने हजारों वर्ष पूर्व पहचान लिया था।
चिकित्सकीय इस्तेमाल
इसके बीज, फूल, गोंद, लाख, पत्र, छाल और जड़ के नाना चिकित्सकीय उपयोग हैं। किसी जमाने में पलाश के पेड़ को काटना या उखाड़ना पाप समझा जाता था। इस संदर्भ में बांगरू भाषा की एक कहावत देहात में सैकड़ों साल से प्रचलित है। जो यूं है—‘आक, ढाक, नीम अर बरणा, इनका जीवन कदे ना हरणा।’ देश के आदिवासी अंचलों में ढाक के पत्तों से झोपड़ी की छान बांधी जाती है। इसके पत्तों में तंबाकू रखकर पीने की रीत गांवों में सर्वत्र रही है। पलाश के पत्तों की बनी पत्तल और दोने में भोजन जीमने की प्रथा अभी भी है। पलाश के पत्तों की पत्तल सोने के बर्तन से ज्यादा पवित्र मानी जाती है।
मेवाड़पति महाराणा प्रताप ने राजपूताना की माटी को साक्षी मानकर सौंह खायी थी कि जब तक मुगलों को भस्मीभूत नहीं कर दूंगा, तब तक स्वर्ण-थाल की बजाय पत्तल में भोजन खाऊंगा। पलासी की लड़ाई वाली जगह का नाम पलाश के कारण पड़ा।
ढाका के नाम के साथ यह है संबंध
बंगाल के नामचीन नगर ढाका का नाम भी ढाक की देन है। ढांखा, ढाकला, ढाकां आली ढाणी व पलासोली जैसे गांवों के नाम भी ढाक वृक्षों से मिले हैं। सौंदर्य के महान कवि कालिदास ने पुष्पित ढाक वनों की उपमा पवन झकोरों से लहराती हुई आग की लपटों से की है। वाणभट्ट ने पलाश के टेसुओं की तुलना कामदेव की पताकाओं से की है। भर्तृहरि, जयदेव, हरिदास व सूरदास समेत अधिकांश संस्कृत कवियों ने ढाक की प्रशस्ति में गीत गाये हैं। पशु-पक्षियों को भी ढाक से असीम लगाव है। टेसू खिलने के दिनों कोयल, मैना, बुलबुल, धनेस, तोता व शक्करखोरा आदि का जमावड़ा ढाक के इर्द-गिर्द रहता है। वनराज यानी सिंह तक ढाक वन का आवास प्रिय है। पलाश के फूलों से पगड़ी, साड़ी व अन्य कपड़े रंगने का काम रंगरेज हजारों साल से करते आ रहे हैं।
मीरा की भक्ति और केसू
केसू के कसूमल रंग से रंगे गए कपड़ों की शोभा अपूर्व होती है। श्रीकृष्ण की पुजारिन मीरा का यह भक्ति गीत इसका प्रमाण है :-
हरे-हरे नित बन बनाऊं, बिच-बिच राखूं क्यारी।
सांवरिया के दरसन पाऊं, पहन कसूमल सारी।
टेसू के रंग से होली खेलने की प्रथम महाभारत काल से चली आती है। श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मणि से जुड़े गीत की पंक्तियां देखिए :-
केसू रंग के कलस भराए दह म्हं घोल्या रंग।
होली खेल्त रहे बनवारी मिल कै रुकमण जी के संग।
बंटवारे से पूर्व हमारे देश में काफी ढाक वन पसरे पड़े थे। पर अब पलास के वन कहीं नहीं हैं। आओ होली पर हम सब घरों, खेतों, उद्यानों, जंगलों, गांवों व शहरों में पलाश के पेड़ लगाने की शपथ लें ताकि भावी पीढ़ियां भी इनका दरस-परस कर सकें।

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